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वरुण-देवताका सूक्त
ॠ. 5. 85
[ यह सूक्त आद्योपान्त लगातार द्वयर्थक है । बाह्य अर्थमें वरुणकी असुरके रूपमें स्तुति की गई है जो सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् प्रभु और स्रष्टा है, ऐसा देव है जो अपनी सर्जनात्मक प्रज्ञा और शक्तिसे युक्त है, जो लोकका निर्माण करता है तथा पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोकोंमे वस्तुओंके विधानको यथावत् बनाए रखता है । गुह्य अर्थमें बाह्य जगत्के भौतिक दृश्य पदार्थ प्रतीक बन जाते हैं । यहाँ अमीम देवाधिदेव अपनी सर्व-व्यापक प्रज्ञा और निर्मलतासे संपन्न है और उसकी स्तुति इस रूपमें की गई है कि वह हमारी सत्ताके तीनों लोकोंको ज्ञानके सूर्यकी ओर उद्घाटित करता है, सत्यकी धाराओंको बरसाता है एवं आत्माको उसकी सत्ताके असत्य और पापसे निकालकर पवित्र करता है । इस सूक्तको यहाँ क्रमश: इसके बाह्य और गुह्य अर्थमें अनूदित किया गया है । ] १ सर्वज्ञ स्रष्टाके प्रति
प्र सम्राजे बृहदर्चा गभीर बह्म प्रियं वरुणाय श्रुताय । वि यो जघान शमितेव चर्मोषस्तिरे पृथिवीं सूर्याय ।।
(श्रुताय सम्राजे वरुणाय) प्रख्यात सर्वशासक वरुणके प्रति (ब्रह्म प्र अर्च) ऐसी वाणीका गान करो जो (बृहत्) विशाल है (गभीरं) गंभीर है तथा (प्रियम्) प्रिय है । ऐसे वरुणके प्रति गाओ (य:) जिसने (चर्म शमिता इव) पशुओंकी खाल उतारनेवालेकी तरह (पृथिवीं वि जवान) पृथिवीका विदारण करके उसे अलग किया है ताकि उसे (सूर्याय उपस्तिरे) सूर्यके नीचे बिछा सके । २ वनेषु व्यन्तरिक्ष ततान वाजमर्वत्सु पय उश्रियासु । हत्सु क्रतुं वरुणों अप्स्बग्निं दिवि सूर्यमदधात्सोममद्रौ ।।
(वरुण:) उस वरुणने (वनेषु अन्तरिक्षं वि ततान) वृक्ष-शिखरोंपर अंतरिक्षको विस्तृत किया है, (अर्वत्सु वाजम्) घोड़ोंमें बलको, (उस्रियासु २१२
बरुण-देवताका सूक्त
पय:) गौओंमें दूधको, ( ह्रत्सु क्रतुम्) हृदयोंमें संकल्पको, ( अप्सु अग्निं) जलधाराओंमे अग्नि1को, ( दिवि सूर्य) द्युलोकमें सूर्यको तथा (अद्रौ सोमम्) पर्वतपर सोमवल्लीको ( अदधात्) निहित किया है । ३ नीचीनवारं वरुण: कबन्धं प्र ससर्ज रोदसी अन्तरिक्षम् । तेन विश्वस्य भुवनस्य राजा यवं न वृष्टिर्व्युनत्ति भूम ।।
(वरुण:) वरुणने ( नीचीनवारं कबन्धं) जलोंके धारक मेघको जिसकी खिड़कियाँ नीचेकी ओर खुली हैं ( रोदसी अन्तरिक्षं) द्यावापृथिवी और अंत-रिक्षपर ( प्रससर्ज) बरसाया है । ( तेन) उसके द्वारा ( विश्वस्य भुवनस्य राजा) सकल विश्वका राजा ( भूम वि उनत्ति) भूमिको ऐसे आप्लावित करता है ( वृष्टि: यवं न) जैसे वर्षा जौ के खेतको । ४ उनत्ति भूमिं पृथिवीभुत द्यां यदा दुग्धं वरुणो वष्ट्यादित् । समभ्रेण वसत पर्वतासस्तविषीयन्त: श्रथयन्त वोरा: ।।
(वरुण:) वरुण ( पृथिवीं भूमिम्) विस्तृत पृथिवीको (उत) और (द्यां) द्युलोकको (उनत्ति) आप्लावित करता है । निश्चय ही (यदा दुग्धं वष्टि) भय वह द्युलोकके दूधकी कामना करता है, ( आत् इत्) तभी (उनत्ति) इसे बरसाता है । (पर्वतास:) पर्वत ( अभ्रेण) मेघके परिधानसे (सं वसत) पूरी तरह आच्छादित है । (वीरा:2 तविषीयन्त:) प्रचंड वीर अपने बलको प्रकट करते है और (श्रथयन्त) उनके सामने सब कुछ शिथिल पड़ जाता है । ५ इमामू ष्वासुरस्य श्रुतस्य महीं मायां वरुणस्थ प्र वोचम् । मानेनेव तस्थिवाँ अन्तरिक्षे वि यो ममे पृथिवीं सूर्येण ।।
(सु श्रुतस्य आसुरस्य) प्रस्यात और शक्तिशाली (वरुणस्य) वरुणकी ( इमां महीं मायां3) इस विशाल सर्जनात्मक प्रज्ञाको मैंने (प्र वोचम् ऊ) घोषित किया है, (य:) जो वरुण (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्षमें (मानेन-इव ___________ 1. सायण व्याख्या करता है कि यह मेघोंमें रहनेवाली वैद्युत अग्नि अथवा सागरमें रहनेवाला वडवानल है । 2. वीरा:--वीर । यहाँ इसका अर्थ है आंधी-तूफानके देवताके रूपमें मरुत् । 3. माया--इस शब्दकी धातुके मूल अर्थमें मापन, बनाने, निर्माण करने या योजना बनानेका प्रबल भाव है । २१३ तस्थिवान्) मानो मापदंड लिए खड़ा है । उसने (पृथिवी) पृथिवीको (सूर्येण वि ममे) सूर्यसे विस्तृत रूपसे माप डाला हैं । ६ इमामू नु कवितमस्य माया महीं देवस्य नकिरा दधर्ष । एकं यदुद्ना न पृणन्त्येनीरा सिञ्चन्तीरवनय: समुद्रम् ।।
(कवितमस्य देवस्य) कवियों-द्रष्टाओंमे सबसे महान् इस देवकी (इमाम् महीम् मायाम् ऊ नु) इस विशाल प्रज्ञाका (नकि: आ दधर्ष) कोई भी उल्लङ्घन नहीं कर सकता । (यत्) यही कारण है कि (समुद्रम् एकम्) समुद्र एक है, पर (एनी: अवनय:) ये दौड़ती हुई नदियां (आ सिञ्चन्ती:) अपनेको उसमें उंडेलती हुई भी उसे (उद्ना न पृणन्ति) जलसे नहीं भर सकतीं । ७ अर्यभ्यं वरुण मित्र्यं वा सखायं वा सदमिद् भ्रातरं वा । वेशं था नित्यं वरुणारणं वा यत्सीमागश्चकृमा शिश्रथस्तत् ।।
(वरुण) हे वरुण ! (यत् सीम् आग:) जो भी कुछ पाप हमने (अर्यम्यं मित्र्यं वा) अर्यमाके अथवा मित्रके विधानके विरुद्ध, (सखायं वा) मित्रके प्रति (सदम् इत् भ्रातरं वा) अथवा सदैव अपने भाईके प्रति, (नित्यं वेशं वा) नित्य पड़ोसी या (अरणं वा) शत्रु1के विरुद्ध (चकृम) किया है, (वरुण) हे वरुणदेव ! (तत् शिश्रथ:) उसें हमसे दूर फेंक दो । ८ कितवासो यद्रिरिपुर्न दीवि यद्वा धा सत्यमुत यन्न विद्म । सर्वा ता विष्य शिथिरेव देवादुधा तेस्याम वरुण प्रियास: ।।
(दीवि कितवास: न) द्यूतके नियमका भंग करनेवाले धूर्त जुआरियोंकी तरह हमने (यत् रिरिपु:) जो पाप किया है, (यद् वा घा सत्यम् [रिरिपु:] ) या सत्यके विरोधमें जो पाप किया है, (उत यत् न विद्म [रिरिपु:]) अथवा अज्ञानमें जो पाप किया है, (ता सर्वा) उन सबको (शिथिरा-इव) ढीले लटके हुए फलोंकी तरह (देव) हे देव ! (वि स्य) काटकर परे फेंक दो । (अध ते प्रियास: स्याम) तभी हम तेरे प्रिय हो जाएँगे, (वरुण) हे वरुण ! ___________ 1. अथव' परदेशी २१४
अनन्त प्रज्ञाका शक्तिशाली स्वामी
11 अनन्त प्रज्ञाका शक्तिशाली स्वामी
[ऋषि वरुणकी स्तुति अनन्त पवित्रता और प्रज्ञाके अधिपतिके रूपमें करता है जो हमारी पार्थिव सत्ताको ज्ञान-सूर्यके मेघमुक्त प्रकाशकी ओर खोल देता है, सत्यकी धाराओंको हमारी समस्त त्रिविध-मानसिक, प्राणिक और भौतिक--सत्तापर बरसाता है और अपनी शक्तिसे हमारे जीवनोंमेंसे समस्त पाप, बुराई व असत्यताको निकाल दूर करता है । वह हमारी कामनाके प्रिय व सुखद विषयोंके लिए हमारी खण्डित खोजके ऊपर हमारी प्राणिक सत्ताकी मुक्त विशालताका सर्जन करता है, हमारी युद्ध-रत प्राणशक्तियोंमें प्रचुर बल स्थापित करता है और विचारके चमकते हुए गोओंमें द्युलोकका दूध, स्वर्गका रस । उसने हमारे हृदयोंमें संकल्पको, सत्ताकी धाराओंमे दिव्य-शक्ति--अग्निको, मनके सर्वोच्च द्युलोकमें दिव्य-ज्ञानके सूर्यको प्रतिष्ठित किया है, और हमारी सत्ताके अनेक उच्चस्तरोंवाले पर्वतपर आनन्द-मदिराको स्रावित करनेवाले पौदेको रोपा है । ये हैं सब साधन जिनके द्वारा हम अमरता प्राप्त करते हैं । वह वरुण अपनी प्रज्ञासे हमारे समग्र भौतिक जीवनकी, ज्ञान-सूर्यकी सत्य-ज्योतिके अनुसार, योजना बनाता है और हमारे अन्दर सत्य-स्तरकी उन सातों नदियोंके साथ अपनी अनन्त सत्ता और चेतनाकी एकताका निर्माण करता है जो ज्ञानकी अपनी धाराओंको उसकी अनन्त सत्ताके अंदर उंडेलती तो है, परन्तु उसकी अनन्तताको भर नहीं पातीं । ] १ प्र सम्राजे बृहदर्चा गभीर बह्य प्रियं वरुणाय श्रुताय । वि यो जघान शमितेव चर्मोपस्तिरे पृथिवीं सूर्याय ।।
(श्रुताय सम्राजे1 वरुणाय) उस वरुणके प्रति जो दूर-दूर तक श्रवणकी जाने-वाली अन्त:प्रेरणाओंका स्वामी है और सर्वशासक हैं, (ब्रह्म) आत्माके उस देदीप्यमान, अन्त:स्फूर्त शब्दको (प्र अर्च) उज्ज्वल रूपमें गाओ जो (गभीरं बृहत् प्रियं) गभीर, विशाल और आनन्दमय है; (य: चर्म शमिता-इव) क्योंकि वह वरुण एक ऐसे व्यक्तिकी तरह है जो पशुसे चमड़ा काटकर पृथक् ________ 1. ये दो विशेषण दिव्य सत्ताके दो पक्षों-'सर्वज्ञान', 'सर्वशक्ति'को द्योतित करनेके लिए अभिप्रेत हैं; ''मायाम् असुरस्य श्रुतस्य'' । मनुष्यको अपने आपको दिव्य बनाते हुए द्रष्टा और सम्राट् देवकी प्रतिमूर्ति बनना होताहै । २१५ कर देता है, (वि जवान) अन्धकारको सब तरफ़से छिन्नभिन्न कर देता है, ताकि (पृथिवी सूर्याय उपस्तिरे) वह हमारी पृथिवीको अपने ज्योतिर्मय सूर्यके नीचे विस्तृत कर सके1 । २ वनेषु व्यन्तरिक्ष ततान वाजमर्वत्सु पय उस्रियासु । हृत्सु क्रतुं वरुणो अप्स्वरग्निं दिवि सूर्यमदधात्सोममद्रौ ।।
(वरुण:) उस वरुणने (वनेषु अन्तरिक्षं) पार्थिव आनन्दके वनो2के ऊपर अन्तरिक्षको (वि ततान) विस्तृत रूपसे फैला दिया है, (अर्वत्सु3 वाजम्) हमारे जीवनके युद्धाश्वोंमे उसने अपना बल-प्राचुर्य और (उस्रियाई4 पय:) ज्ञानके हमारे प्रदीप्त गोयूथोंनें उनका द्युलोकीय दूध (अदधात्) निहित किया है । वरुणने (हृत्सु क्रतुं5) हमारे ह्दयोंमें संकल्पको (अप्सु अग्निं) जलधाराओं6में दिव्य अग्नि7को, (दिवि सूर्यम्) हमारे द्युलोकमें प्रकाश-स्वरूप सूर्यको (अदधात्) प्रतिष्ठित किया है और (अद्रौ सोमम्) हमारी सत्ता8के पर्वतपर आनन्दवल्लीको (अदधात्) रोपित किया है । ३ नीचीनवारं वरुण: कबन्धं प्र ससर्ज रोदसी अन्तरिक्षम् । तेन विश्वस्य भुवनस्य राजा यवं न वृष्टिर्व्युनत्ति भूम ।। __________ 1. विज्ञान-ज्योतिके साक्षात्कारों तथा अंतःप्रेरणाओंको ग्रहण करनेके लिए भौतिक मनकी सीमाएँ दूर धकेल दी गई हैं और इसे महान् विशालतामें फैला दिया गया है । 2. वन, या पृथिवीके आनन्दमय प्ररोह ('वन'का अर्थ सुख भी है) अन्तरिक्ष- लोकका,-हमारे अंदरके उस प्राणलोकका आधार हैं जो प्राण-देवता वायुका प्रदेश है । वही कामनाओंकी तृप्तिका लोक है । ज्ञानके और सत्यके विधानके द्वारा आनन्द या दिव्य हर्षको ग्रहण करनेके लिए इसे भी इसकी पूर्ण विशालतामें फैला दिया गया है जो सीमाओंसे रहित है । 3.अर्वत्सु-'अर्वत्' शब्दके दोनों अर्थ हैं ''युद्धकर्ता, संघर्षकर्ता'' ओर ''अश्व'' । 4. उस्रियासु--'उस्रिया:'के दोनों अर्थ हैं, ''उज्ज्वल रश्मिया'' और ''गौएँ'' । 5. क्रतु--दिव्य कार्यके लिए संकल्प, यज्ञिय संकल्प । 6. सत्ताका समद्र अथवा सत्ताकी धाराएँ ऊपरसे अवतरित होती हैं । 7. अग्नि-दिव्य संकल्पकी अग्नि जो यज्ञको ग्रहण करती और उसका पुरोहित बन जाती है । 8. हमारी सत्ताको सदा एक पर्वतकी उपमा दी जाती है जो अनेकों धरातलोंसे युक्त होता है, प्रत्येक धरातल सत्ताका एक क्षेत्र या स्तर है । २१६
अनन्त प्रज्ञाका शक्तिशाली स्वामी
(वरुण:) वरुणने (रोदसी अन्तरिक्षं) द्यावापृथिवी और अन्तरिक्षके ऊपर (कबन्धं प्र ससर्ज) प्रज्ञाके उस धारकको बरसाया है (नीचीनवारं) जिसके द्वार नीचे1की ओर खुले है । (तेन) उसके सनथ (विश्वस्य भुवनस्य राजा) हमारी समस्त सत्ताका राजा (भूम वि उनत्ति) हमारी पृथिवीको ऐसे आप्ला-वित करता है (वृष्टि: यवं न) जैसे वर्षा जौको आप्लावित कर देती है । ४ उनत्ति भूमिं पृथिवीमुत द्यां यदा दुग्धं वरुणो वष्टचादित् । समश्रेण वसत पर्वतासस्तविषीयन्त: श्रथयन्त वीरा: ।।
(वरुण:) वरुण (पृथिवीं भूमिं) हमारी विशाल पृथ्वीको (उत) और (द्यां) हमारे द्युलोकको (उनत्ति) आप्लावित कर देता है । हॉ, (यदा) जब वह (दुग्धं वष्टि) दूध2 चाहता है तो उसे (उनत्ति) बरसा देता है । (आत् इत्) उसके अनंतर (पर्वतास:) पर्वत (अश्रेण) बादलसे (सं वसत) आच्छादित हो जाते हैं । (वीरा:) उसके वीर3 (तविषीयंन्तः) अपने बलको प्रकट करते है और (श्रथयन्त) उसे [बादलको] दूर हटा देते हैं । ५ इमामू ष्वासुरस्थ श्रुतस्य महीं माया वरुणस्य प्र वोचम् । मानेनेव तस्थिवाँ अन्तरिक्षे वि यो ममे पृथिवी सूर्येण ।।
(श्रुतस्य अग्सुरस्य वरुणस्य) जिसकी वाणी दूर-दूर तक सुनी जाती है और जो शक्तिशाली अधिपति है उस वरुणकी (इमां महीं मायाम् ऊ सु) इस विशाल प्रज्ञाको मैं (प्र वोचम्) घोषित करता हूँ, क्योंकि वह (अन्तरिक्षे) हमारे अन्तरिक्षमें (मानेन-इव तस्थिवान्) मानो मानदण्ड लिये खड़ा है, (य:) _____________ 1. विज्ञान अनन्तको उसके संकल्प और ज्ञानमे ग्रहण करनेके लिए ऊपरकी ओर उद्घाटित होता है । यहाँ उसके द्वार निम्नतर सत्ताको आप्लावित करनेके लिए नीचेकी ओर खुलते हैं । 2. अनन्त-चेतनारूपी गाय--अदिति--का दूध । 3. मरुत्--पूर्ण क्चिारप्प्मक ज्ञानको प्राप्त करनेवाली प्राण-शक्तियां । वे मेघ या आच्छादक वत्रको छिन्न-भिन्न करनेमें इन्द्रकी सहायता करते हैं और सत्यकी जलधाराएँ बरँसाते है तथा गुप्त सूर्यके वल द्वारा छिपाए हुए प्रकाशको लानेमें भी सहायता पहुँचाते हैं । यहाँ दोनों विचारोंको एक अन्य रूपकमें मिला दिया गया है । २१७ जो (पृथिवीं) हमारी पृथिवीको (सूर्येण) अपने ज्योतिर्मय सूर्य1से (वि ममे) पूरा-पूरा मापता है । ६ इमामू नु कवितमस्य माया महीं देवस्य नकिरा दधर्ष । एक यदुद्ना न पृणनयेनीरासिन्चन्तीरवनय: समुद्रम् ।।
(कवितमस्य देवस्य) द्रष्टा-ज्ञानमे सबसे महान् वरुण देवकी (इमां महीं मायाम् ऊ नु) इस विशाल प्रज्ञाको (नकि: आ दवर्ष) कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता । (यत्) क्योंकि (एक समुद्रम्) उस एक, सागर-स्वरूप वरुणमें (एनी: अवनय:) उज्ज्वल पोषक नदिया2 (आ सिञ्चन्ती:) अपनी धाराएँ डालती हुई भी (उद्ना न पृणन्ति) उसे जलसे भर नहीं सकतीं । ७ अर्यम्यं वरुण मित्र्यं वा सखायं वा सदमिद् भ्रातरं वा । वेशं वा नित्यं वरुणारणं वा यत्सीमागश्चकृमा शिश्रथस्तत् ।।
(वरुण) हे वरुण ! (यत् सीम् आग:) जो कोई भी पाप हमनें (अर्यम्यं) तेरी अर्यमा-शक्तिके रूपमें तेरे प्रति, (वा) या (मित्र्यं) तेरी मित्र-शक्तिके रूपमें तेरे प्रति, (वा) या (सखायं) सखाके रूपमें, (वा) या (भ्रातरं) भाईके रूपमें, (वा) या (नित्यं वेशम्) शाश्वत अन्तर्वासी (वा) अथवा अरणम्) योद्धा3के रूपमें तेरे प्रति (चकृम) किया है (तत्) उस सबको (सदम् इत्) सदाके लिए (शिश्रथ:) दूर फेंक दे, (वरुण) हे वरुण !
८ कितवासो यद्रिरिपुर्न दीवि यद्वा घा सत्यमुत यन्न विद्म । सर्वा ता विष्य शिथिरेव देवाऽधा ते स्याम वरुण प्रियास: ।। __________ 1. मनष्य भौतिक सत्तामें निवास करता है । वरुण उसमें विज्ञानकी ज्योति लाता है और उसे माप डालता है अर्थात् वह हमारे पार्थिव जीवनको विज्ञान-सूर्यसे प्रकाशित मनके द्वारा सत्यके माप-दण्डके अनुसार गढ़ता और योजनाबद्ध करता है । वह हमारे प्राणिक स्तरमें, जो मानसिक ओर भौतिक स्तरके बीचकी कड़ी है, असुरके रूपमें अपना स्थान ग्रहण करता है ताकि वह वहाँ प्रकाशको ग्रहण करके उसे सर्जनात्मक और निर्धारक शक्तिके रूपमें भौतिक स्तर तक पहुँचा सके । 2. सात नदियोंको, जो सत्यके स्तरसे अवतरित होती हैं, यहाँ 'अवनय :' कहा गया हैं । इस शब्दका धात्वर्थ वही है जो 'धेनव:' का, अर्यात् पोषक गौएँ । दस्युओंके विरुद्ध योद्धा । २१८
अनन्त प्रज्ञाका शक्तिशाली स्वामी
(कितवास न) जैसे चालाक जुआरी (दीवि रिरिपु:) अपने जुएके खेलमें अपराध करते हैं उसी तरह (यत् [ रिरिपु: ]) हमने जो पाप किया है, (यद् वा घ) अथवा जो पाप हमने (सत्यं [ रिरिपु: ] ) सत्यके विरोधमें किया है (उत) और (यत्) जो पाप (न विद्म) अज्ञानवश किया है (सर्वा ता) उन सबको (शिथिरा-इव) शिथिल वस्तुओंकी तरह (वि स्व) चीर-फाड़कर पृथक् कर दे । (अध) तब हम ( ते प्रियास : स्याम) तेरे प्रिय हों जाएँ, (देव वरुण) हे वरुणदेव ! २१९
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